गुरुवार, 15 जून 2017

अल्लाह की कोन कोन सी निशानियों को झुठलाओगे ,


फिरोन की लाश पर परिक्षण कर के डॉक्टर मोरिस को कुरआन की सत्यता पर विश्वास हुआ


डॉ मौरिस बुकाय फ्रांस के सबसे बड़े डाक्टर थे, और उनका धर्म ईसाई था ॥ 1898 मे जब मिस्र मे लाल सागर के किनारे एक अति प्राचीन मानव शरीर मिला जो आश्चर्यजनक रूप से हज़ारों साल गुजर जाने के बाद भी सुरक्षित था, सभी को इस मृत शरीर का रहस्य जानने की उत्सुकता रहती थी इसीलिए इस शरीर को 1981 मे चिकित्सकीय खोज के लिए फ्रांस मंगवाया गया और इस शरीर पर डाक्टर मौरिस ने परीक्षण किए ….

परीक्षणों से डाक्टर मौरिस ने निष्कर्ष निकाले कि जिस व्यक्ति की ये मृत देह है उसकी मौत समुद्र मे डूबने के कारण हुई थी क्योंकि डाक्टर मौरिस को उस मृत शरीर मे समुद्री नमक का कुछ भाग मिला था, साथ ही ये भी पता चला कि इस व्यक्ति को डूबने के कुछ ही समय बाद पानी से बाहर निकाल लिया गया था …. लेकिन ये बात डाक्टर मौरिस के समक्ष अब भी एक पहेली थी कि आखिर ये शरीर अपनी मौत के हजारो साल बाद भी सड़ गल कर नष्ट क्यों नहीं हुआ ….
तभी उन्हें अपने एक सहकर्मी से पता चला कि मुस्लिम लोग बिना जांच रिपोर्ट के सामने आए ही ये कह रहे हैं कि ये व्यक्ति समुद्र मे डूब कर मरा था, और ये मृत देह उस फिरऔन की है जिसने अल्लाह के नबी हजरत मूसा (अलैहि सलाम) और उनके अनुयायियों का कत्ले आम कराना चाहा था, क्योंकि फिरऔन की लाश के सदा सुरक्षित रहने और उसके समुद्र मे डूब कर मरने की बात उनकी पवित्र पुस्तक कुरान मे लिखी है जिसपर वो विश्वास करते हैं …

मौरिस को ये सोचकर बहुत हैरत हुई कि इस मृत देह के समुद्र मे डूब कर मरने की जिस बात का पता मैंने बड़ी बड़ी अत्याधुनिक मशीनों की सहायता से लगाया वो बात मुस्लिमों को पहले से कैसे मालूम चल गई ? और जबकि इस लाश के अपनी मृत्यु के हजारों साल बाद भी नष्ट न होने का पता 1981से महज़ 83 साल पहले चला है, तो उनकी कुरआन मे ये बात 1400 साल पहले कैसे लिख ली गई ?
इस शरीर की मौत के हजारों साल बाद भी इस शरीर के बचे रह जाने का कोई वैज्ञानिक कारण डाक्टर मौरिस या अन्य वैज्ञानिक जब पता न लगा सके तो इसे ईश्वर के चमत्कार के अतिरिक्त और क्या माना जा सकता था ?

बाइबल के आधार पर भी मृत देह के मिलने की लोकेशन और चिकित्सकीय परीक्षण के आधार पर उस मृत शरीर की लगभग 3000 वर्ष की उम्र होने के कारण मौरिस को ये विश्वास तो हो रहा था कि ये शरीर फिरऔन का ही है, अत: डाक्टर ने फिरऔन के विषय मे अधिक जानने के लिए तौरात शरीफ (बाइबल : ओल्ड टेस्टामेण्ट) का अध्ययन करने का निर्णय किया, लेकिन तौरात मे उन्हें सिर्फ इतना लिखा हुआ मिला कि फिरऔन और उसकी फौज समुद्र मे डूब गए और उनमें से एक भी नहीं बचा . लेकिन फिरऔन की लाश का कहीं जिक्र तक न था …

मौरिस के ज़हन मे कई सवाल खटकते रहे, और आखिरकार वो इन सवालों के जवाब हासिल करने सऊदी अरब मे चल रही एक बड़ी मेडिकल सेमिनार मे हिस्सा लेने पहुंच गए, जहाँ उन्होंने फिरऔन की मृत देह के परीक्षण मे जो पाया वो बताया, उसी वक्त डाक्टर मौरिस की बात सुनकर एक मुस्लिम डाक्टर ने कुरआन पाक खोलकर सूरह यूनुस की ये आयत पढ़कर सुना दी कि…
♥ अल'क़ुरआन
इसलिए हम तेरे जिस्म को बचा लेंगे ताकि तू अपने बाद वालों के लिए एक निशानी हो जाए , बेशक बहुत से लोग हमारी निशानियों की तरफ से लापरवा रहते हैं , 
( सूरह: यूनुस: आयत - 92 )
*इस आयत का डाक्टर मौरिस बुकाय पर कुछ ऐसा असर पड़ा कि उसी वक्त खड़े होकर उन्होने ये ऐलान कर दिया कि- “मैने आज से इस्लाम कुबूल कर लिया, और इस पवित्र कुरान पर विश्वास कर लिया”

इसके बाद अपने वतन फ्रान्स वापस जाकर कई साल तक डाक्टर मौरिस कुरान और साइंस पर रिसर्च करते रहे, और फिर उसके बाद कुरआन के साइंसी चमत्कारों के विषय मे ऐसी ऐसी किताबें लिखी जिन्होंने दुनियाभर मे धूम मचा दी थी..

“अगर आपको भी लगता है के – ये बाते लोगों तक पोहोचनी चाहिये तो इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करे,. इंशाअल्लाह! हो सकता है के आपके शेयर करने से किसी गैरमुस्लिम को “कुरानो-सुन्नत” पर गौरो फ़िक्र करने की अल्लाह तौफीक दे दे और ये उनके लिए हिदायत और आपके लिए सवाबे जारिया बन जाये .. जजाकल्लाहू खैरन कसीरा !!!”

धरती की अवस्था: गोल या चपटी ?


प्राराम्भिक ज़मानों में लोग विश्वस्त थे कि ज़मीन चपटी है, यही कारण था कि सदियों तक मनुष्य केवल इसलिए सुदूर यात्रा करने से भयाक्रांति करता रहा कि कहीं वह ज़मीन के किनारों से किसी नीची खाई में न गिर पडे़! सर फ्रांस डेरिक वह पहला व्यक्ति था जिसने 1597 ई0 में धरती के गिर्द ( समुद्र मार्ग से ) चक्कर लगाया और व्यवहारिक रूप से यह सिद्ध किया कि ज़मीन गोल (वृत्ताकार ) है।
यह बिंदु दिमाग़ में रखते हुए ज़रा निम्नलिखित क़ुरआनी आयत पर विचार करें जो दिन और रात के अवागमन से सम्बंधित है:

"क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह रात को दिन में पिरोता हुआ ले आता है और दिन को रात में "
(अल-.क़ुरआन: सूर: 31 आयत 29 )
यहां स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि अल्लाह ताला ने क्रमवार रात के दिन में ढलने और दिन के रात में ढलने (परिवर्तित होने )की चर्चा की है ,यह केवल तभी सम्भव हो सकता है जब धरती की संरचना गोल (वृत्ताकार ) हो। अगर धरती चपटी होती तो दिन का रात में या रात का दिन में बदलना बिल्कुल अचानक होता । निम्न में एक और आयत देखिये जिसमें धरती के गोल बनावट की ओर इशारा किया गया है:

"उसने आसमानों और ज़मीन को बरहक़ (यथार्थ रूप से )उत्पन्न किया है ,, वही दिन पर रात और रात पर दिन को लपेटता है।,"
(अल.-क़ुरआन: सूर:39 आयत 5)
यहां प्रयोग किये गये अरबी शब्द ‘‘कव्वर‘‘ का अर्थ है किसी एक वस्तु को दूसरे पर लपेटना या overlap करना या (एक वस्तु को दूसरी वस्तुको दूसरी वस्तु पर) चक्कर देकर ( तार की तरह ) बांधना। दिन और रात को एक दूसरे पर लपेटना या एक दूसरे पर चक्कर देना तभी सम्भव है जब ज़मीन की बनावट गोल हो ।
ज़मीन किसी गेंद की भांति बिलकुल ही गोल नहीं बल्कि नारंगी की तरह (geo-spherical) है यानि ध्रुव (poles) पर से थोडी सी चपटी है। निम्न आयत में ज़मीन के बनावट की व्याख्या यूं की गई हैः

" और फिर ज़मीन को उसने बिछाया "
(अल क़ुरआन: सूर 79 आयत 30)
यहां अरबी शब्द ‘‘दहाहा‘‘ प्रयुक्त है, जिसका आशय ‘‘शुतुरमुर्ग़‘‘ के अंडे के रूप, में धरती की वृत्ताकार बनावट की उपमा ही हो सकता है। इस प्रकार यह माणित हुआ कि पवित्र क़ुरआन में ज़मीन के बनावट की सटीक परिभाषा बता दी गई है, यद्यपि पवित्र कुरआन के अवतरण काल में आम विचार यही था कि ज़मीन चपटी है।  (क़ुरआन और विज्ञान )


मंगलवार, 23 मई 2017

आर्यसमाज से १० प्रश्न



(प्र.१) ईश्वर ने ऋषियों को किस तरह से वेद सुनाऐ ?
अगर कहो कि वेदो का ज्ञान उनके दिलो दिमाग मे डाला गया तो जरा सा ये बताने का कष्ट करे कि ज्ञान किस तरह से ईश्वर ने ऋषियों को दिया  ? अर्थात वह किस तरह का ट्रांसमीटर था , क्या कोई हरी (Green) बद्दी थी जो उनके सिर मै चल जाया करती थी  ? 

(२)मरने के  बाद आत्मा कुछ ही देर मै शरीर धारण करती है !

यह बृहदारण्यक- उपनिषद् ने कहा- देखियें ,
तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानम्

उपसँ्हरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्य् आत्मानमुपसंहरति।।

– बृ. ४.४.३

जैसे तृण जलायुका (यह कोई खास किडा हे आर्य समाजीयों का) तिनके के आखरी सिरे पर पहुँच कर, दूसरे तिनके को सहारे के लिए पकड़ लेता है अथवा पकड़ कर अपने आपको खींच लेता है, इसी तरह यह आत्मा इस शरीररूपी तिनके को दुर कर दुसरे शरीर रुपी तिनके का सहारा लेकर अपने आपको खिंच लेती हे !

उपनिषद् के मुताबीक एक शरीर से दुसरे शरीर मे जाने के लिये आत्मा को बस कुछ ही देर लगती हे !

(प्र. २)  अब प्रश्न यें हे कि आपके स्वामी दयानन्द साहेब अब तक क्यूं नही आऐं ? साहेब तो मरते मरते कहकर गये थे कि मै दोबारा आउुंगा , और उपनिषद् ने भी समय बतादिया है ! कृपा कर समाधान करीयें ,

> आर्यो के स्वामी साहेब सत्यार्थ
प्रकाष की भुमिका मे लिखते हे कि ईस ग्रन्थ मे ऐसी कोई बात नही रखी है, और न किसी का मन दुखाना !
आईये अब देखते हे कि स्वामी जी ने किन किन लोगों का मन दुखाया है ,

स्वामी साहेब लिखते हे कि जिस कन्या के शरीर पर बड़े बड़े लोम अथवा बवासीर , क्षयी , दम , खासी , अमाशय , मिरगी , .... कुलो की कन्या वा वर के साथ विवाह होना न चाहिये ! (स. समु. ४ पेज ५३)
(प्र.३ ) अब कहिये जब कोई लड़का या लड़की जिसमे यह बिमारी हो वह अगर यह वाक्य पड़ेंगे तो क्या उनका मन नही दुखेगा ?

आगे और भी स्वामी जी लिखते है ,
 पेज न०. १५२ पर ,  हब्शी लोगो को भयंकर व राक्षस बोला हे ,
(प्र.४) समाजीयो  यह वाक्य जब हब्शी लोग  पड़ेंगे तो  उनका मन दुखेगा या नही ?

अब जेनियो के बारे मे भी देखियें ,

दयानन्द जी ने जेनियोे को एक वेश्या समान समजा है , (समु.१२पेज न०.३०२)
(प्र.५ ) अब बताईयें कि क्या जेन मत वाले दयान.. जी के वाक्य देखकर प्रसन्न होंगे ? क्या उनका मन  नही दुखेगा  ?

ये तो होगऐं  दयानन्द जी की भुमिका पर उठने वाले प्रश्न , अब इसी मेसे कुछ और भी प्रश्न सामने आते है ,
(प्र.६) अगर किसी वर या कन्या के विवाह के बाद ये जो बिमारीयो के बारे मे बताया गया है ये बिमारी उनके भीतर आजायें तो वह क्या करे ? इसके बारे मे तो स्वामी साहेब ने  कुछ नही बताया ?

आर्यसमाज का कहना है कि आर्यसमाज किसी मनुष्य मै उच निच  नही समझता,
(प्र.७) तो अब बताइयें कि हब्शी लोगो को भयंकर व राक्षस किस आधार पर कहा ? अगर कहो कि उनका चहरा काला व नाक बड़ी हे तो यह स्वामी जी की बात उच निच समान ही है ! हद होती हे दोगलेपन की ,

(८) जेसे वेश्या विना अपने के दुसरी की स्तुति नहि करती वेसे ही यह बात भी दिखती है , ( सत्यार्थ समु.१२ - पेज३०२)
यह वाक्य दयानन्द साहेब ने जेनियो के लिये लिखे है , परन्तु अब यह वाक्य आज की सत्यार्थ प्रकाश मे नही दिखेंगे !

(प्र.८) समाजियो यह वाक्य को क्यु छुपाना चाहते हो ?

(९) डाढ़ी मूँछ और शिर के बाल सदा मुंडवाते रहना चाहिये अर्थात पुन : कभी न रखना और जो शीतप्रधान देश हो तो कामचार है, चाहै जितने केश रक्खे और अति उष्ण देश हो तो सब शिखा सहित छेदन करा देना चाहिये क्योंकि शिर मे बाल रहने से उष्णता अधिक होती है और उसमे बुध्दि कम हो जाती है । डाढ़ी मुँछ रखने से भोजन पान अच्छे प्रकार नहीं होता और उच्छिष्ट भी बालों में रह जाता है ! ( सत्यार्थ . समु . १० )

(९) दया जी कहते हे कि जो शीतप्रधान देश हो तो कामचार है ,चाहै जितने केश रखे ।
और निचे लिखते हे कि डाढ़ी मुँछ रखने से भोजन पान अच्छे प्रकार से नही होता और उचछिष्ट भी बालों में रह जाता है ।

(प्र०.९) क्या शीतप्रधान वाले देश के मनुष्यों का भोजन पान अच्छे प्रकार हो जायेगा ? और क्या उच्छिष्ट
 बालों मे न फसेगा ?

वाह रे स्वामी साहेब का दोगलापन ,

(१०) दया जी कहते है कि सिर  के बाल रखने से बुध्दि कम हो जाती है .

(प्र०.१०) औरतो के बाल बहुत लम्बे लम्बे होते है क्या उनकी बुध्दि कम होती हे ?

दयानन्द जी की हर एक बात पर प्रश्न उठता है परन्तु हमने सिर्फ १० प्रश्न ही किये क्योंकि यहि ठेकेदारो के लियें काफी हद तक है !
               

( अकिल अन्सारी )        

शुक्रवार, 19 मई 2017

हिंसा, जीव-हत्या

 ( अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है। )

जीव-हत्या, अपने अनेक रूपों में एक ऐसी हक़ीक़त है जिससे ईन्सानो का इतिहास कभी भी ख़ाली नहीं रहा। व्यर्थ व अनुचित व अन्यायपूर्ण जीव-हत्या से आमतौर पर तो लोग हमेशा बचते रहे हैं क्योंकि यह मूल-मानव प्रवृत्ति तथा स्वाभाविक दयाभाव के प्रतिवू$ल है; लेकिन जीवधारियों की हत्या भी इतिहास के हर चरण में होती रही है क्योंकि बहुआयामी जीवन में यह मानवजाति की आवश्यकता रही है। इसके कारक सकारात्मक भी रहे हैं, जैसे आहार, औषधि तथा उपभोग के सामानों की तैयारी व उपलब्धि; और नकारात्मक भी रहे हैं, जैसे हानियों और बीमारियों से बचाव।
पशुओं, पक्षियों, मछलियों आदि की हत्या आहार के लिए भी की जाती रही है, औषधि-निर्माण के लिए भी, और उनके शरीर के लगभग सारे अंगों एवं तत्वों से इन्सानों के उपभोग व इस्तेमाल की वस्तुएं बनाने के लिए भी। बहुत सारे पशुओं, कीड़ों-मकोड़ों, मच्छरों, सांप-बिच्छू आदि की हत्या, तथा शरीर व स्वास्थ्स के लिए हानिकारक जीवाणुओं (बैक्टीरिया, जम्र्स, वायरस आदि) की हत्या, उनकी हानियों से बचने-बचाने के लिए की जानी, सदा से सर्वमान्य, सर्वप्रचलित रही है। वर्तमान युग में ज्ञान-विज्ञान की प्रगति के व्यापक व सार्वभौमिक वातावरण में, औषधि-विज्ञान में शोधकार्य के लिए तथा शल्य-क्रिया-शोध व प्रशिक्षण (Surgical Research and Training) के लिए अनेक पशुओं, पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों, कीटाणुओं, जीवाणुओं आदि की हत्या की जाती है।
ठीक यही स्थिति वनस्पतियों की ‘हत्या’ की भी है। जानदार पौधों को काटकर अनाज, ग़ल्ला, तरकारी, फल, पू$ल आदि वस्तुएं आहार व औषधियां और अनेक उपभोग-वस्तुएं तैयार करने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं; पेड़ों को काटकर (अर्थात् उनकी ‘हत्या’ करके, क्योंकि उनमें भी जान होती है) उनकी लकड़ी, पत्तों, रेशों (Fibres) जड़ों आदि से बेशुमार कारआमद चीज़ें बनाई जाती हैं। इन सारी ‘हत्याओं’ में से कोई भी हत्या ‘हिंसा’, ‘निर्दयता’, ‘क्रूरता’ की श्रेणी में आज तक शामिल नहीं की गई, उसे दयाभाव के विरुद्ध व प्रतिकूल नहीं माना गया। कुछ नगण्य अपवादों (Negligible exceptions) को छोड़कर (और अपवाद को मानव-समाज में हमेशा पाए जाते रहे हैं) सामान्य रूप से व्यक्ति, समाज, समुदाय या धार्मिक सम्प्रदाय, जाति, क़ौम, सभ्यता, संस्कृति, धर्म, ईशवादिता आदि किसी भी स्तर पर जीव-हत्या के उपरोक्त रूपों, रीतियों एवं प्रचलनों का खण्डन व विरोध नहीं किया गया। बड़ी-बड़ी धार्मिक विचारधाराओं और जातियों में इस ‘जीव-हत्या’ के हवाले से ईश्वर के ‘दयावान’ व ‘दयाशील’ होने पर प्रश्न नहीं उठाए गए, आक्षेप नहीं किए गए, आपत्ति नहीं जताई गई।
● भारतीय परम्परा में जीव-हत्या, मांसाहार और पशु-बलि
विषय-वस्तु पर इस्लामी दृष्टिकोण और मुस्लिम पक्ष पर चर्चा करने से पहले उचित महसूस होता है कि स्वयं भारतीय परम्परा पर (आलोचनात्मक, नकारात्मक व दुर्भावनात्मक दृष्टि नहीं, बल्कि) एक  तथ्यात्मक (Objective) नज़र भी डाल ली जाए।
मनुस्मृति को ‘भारतीय धर्मशास्त्रों में सर्वोपरि शास्त्र’ होने का श्रेय प्राप्त है। इसके मात्र एक (पांचवें) अध्याय में ही 21 श्लोकों में मांसाहार (अर्थात् जीव-हत्या) से संबंधित शिक्षाएं, नियम और आदेश उल्लिखित हैं। रणधीर प्रकाशन हरिद्वार से प्रकाशित, पण्डित ज्वाला प्रसाद चतुर्वेदी द्वारा अनूदित प्रति (छटा मुद्रण, 2002) में 5:17-18; 5:21-22; 5:23; 5:27-28; 5:29-30; 5:31-32; 5:35-36; 5:37-38; 5:39; 5:41-42; 5:43-44; 5:56 में ये बातें देखी जा सकती हैं। इनका सार निम्नलिखित है:
1. ब्रह्मा ने मांस को (मानव) प्राण के लिए अन्न कल्पित किया है। अन्न, फल, पशु, पक्षी आदि प्राण के ही भोजन हैं। ब्रह्मा ने ही खाद्य और खादक दोनों का निर्माण किया है। स्वयं ब्रह्मा ने यज्ञों की समृद्धि के लिए पशु बनाए हैं इसलिए यज्ञ में पशुओं का वध अहिंसा है।
2. भक्ष्य (मांसाहार-योग्य) कुछ पशुओं के नाम बताए गए हैं। सनातन विधि को मानते हुए संस्कृत किया हुआ पशु-मांस ही खाना चाहिए।
3. वेद-विदित और इस चराचर जगत में नियत हिंसा को अहिंसा ही समझना चाहिए क्योंकि धर्म वेद से हो निकला है।
4. अगस्त्य मुनि के अनुपालन में ब्राह्मण यज्ञ के निमित्त यज्ञ, या मृत्यों के रक्षार्थ प्रशस्त, पशु-पक्षियों का वध किया जा सकता है। मनु जी के कथनानुसार मधुपर्व$, ज्योतिष्टोमादि यज्ञ, पृतकर्म और देवकर्म में पशु हिंसा करना चाहिए। (श्राद्ध और मधुपर्व$ में तथा) विधि नियुक्त होने पर मांस न खाने वाला मनुष्य मरने के इक्कीस जन्म तक पशु होता है।
5. देवतादि के उद्देश्य बिना वृथा पशुओं को मारने वाला मनुष्य उन पशुओं के बालों की संख्या के बराबर जन्म-जन्म मारा जाता है।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि :
(i) आहार के लिए मांस खाया जा सकता है।
(ii) यज्ञ के लिए, श्राद्ध के लिए, और देवकर्म में,
पशु हिंसा करनी चाहिए, यह वास्तव में अहिंसा है।
(iii) पशुओं को व्यर्थ मारना पाप है।
(iv) पशु-पक्षी और वनस्पतियां मनुष्य के आहार के लिए ही निर्मित की गई हैं।
यही कारण है कि (बौद्ध-कालीन अहिंसा-आन्दोलन के समय, और उसके पहले) वैदिक सनातन धर्म में मांसाहार और यज्ञों के लिए पशु-वध का प्रचलन था। धर्म इसका विरोधी नहीं, बल्कि समर्थक व आह्वाहक था।
● इस्लाम का पक्ष
मनुस्मृति, वेद, सनातन धर्म और वैदिक काल के उपर्लिखित हवाले, मांसाहार, जीव-हत्या और क़ुरबानी (पशु-बलि) के इस्लामी पक्ष के पुष्टीकरण में दलील व तर्व$ के तौर पर प्रस्तुत नहीं किए गए हैं। इस्लाम एक प्राकृतिक व शाश्वत धर्म के रूप में, अपने आप में संपूर्ण, तर्कपूर्ण, विश्वसनीय (Authentic) है। उपरोक्त बातें विषय-वस्तु को समझने में उन लोगों की आसानी के लिए लिखी गई हैं जो मालूम नहीं क्यों हर स्तर पर, हर क़िस्म के मांसाहार व जीव-हत्या तथा हिंसा को तो अनदेखा (Neglect) कर देते हैं, बल्कि उनमें से अधिकतर लोग तो स्वयं (बहुत शौक़ से) मांस-मछली, अंडे आदि खाते भी हैं, लेकिन इस्लाम और मुसलमानों के हवाले से इन्हीं बातों पर क्षुब्ध, चिन्तित और आक्रोषित हो जाते हैं।
इस्लाम का दृष्टिकोण इस विषय में संक्षिप्त रूप से यूं है :
● भूमण्डल, वायुमण्डल, सौर्यमण्डल की हर वस्तु (जीव-अजीव, चर-अचर) मनुष्यों की सेवा/आहार/उपभोग/स्वास्थ्य/जीवन के लिए निर्मित की गई है।
● किसी भी जीवधारी की व्यर्थ व अनुद्देश्य हत्या अबाध्य (Prohibitted) है, और सोद्देश्य (Purposeful) हत्या बाध्य (Permissible)।
● मुस्लिम पक्ष
क़ुरबानी, ईशमार्ग में यथा-अवसर आवश्यकता पड़ने पर अपना सब कुछ क़ुरबान (Sacrifice) कर देने की भावना का व्यावहारिक प्रतीक (Symbol) है। इसकी शुरुआत लगभग 4000 वर्ष पूर्व हुई थी जब ईशदूत पैग़म्बर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) से अल्लाह ने उनकी ईशपरायणता की परीक्षा लेने के लिए आदेश दिया था कि अपनी प्रियतम चीज़—बुढ़ापे की सन्तान, पुत्र इस्माईल—की बलि दो। इब्राहीम (अलैहि॰) बेटे की गर्दन पर छुरी पे$रने को थे कि ईशवाणी हुई कि, बस तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए। बेटे की बलि अभीष्ट न थी, अतः (बेटे की बलि के प्रतिदान-स्वरूप) एक दुम्बे (भेड़) की बलि दे दो, यही काफ़ी है (सारांश क़ुरआन, 37:101-107)। तब से आज तक उसी तिथि (10 ज़िलहिज्जा) को, पशु-बलि (कु़रबानी) देकर मुस्लिम समाज के (क़ुरबानी के लिए समर्थ) सारे व्यक्ति, प्रतीकात्मक रूप से ईश्वर से अपने संबंध, वफ़ादारी और संकल्प को हर वर्ष ताज़ा करते हैं कि ‘‘हे ईश्वर! तेरा आदेश होगा, आवश्यकता होगी, तक़ाज़ा होगा तो हम तेरे लिए अपनी हर चीज़ क़ुरबान करने के लिए तैयार व तत्पर हैं।’’ और यही ईशपरायणता का चरम-बिन्दु है।
● मुसलमानों की ‘हिंसक प्रवृत्ति’ (?)
जहां तक मांसाहार और पशु-हत्या की वजह से मुसलमानों में हिंसक प्रवृत्ति उत्पन्न होने की बात है तो पिछले आठ नौ दशकों से अब तक का इतिहास इस बात का स्पष्ट व अकाट्य खण्डन करता है। विश्व में मुस्लिम जनसंख्या लगभग 20-25 प्रतिशत, और भारत में (पिछले 60-62 वर्षों के दौरान) लगभग 15 प्रतिशत रही है। इस समयकाल में दो महायुद्धों और अनेक छोटे-छोटे युद्धों में हुई हिंसा में मुसलमानों का शेयर 0 प्रतिशत रहा है। तीन अन्य बड़े युद्धों में अधिक से अधिक 2-5 प्रतिशत; और भारत के हज़ारों दंगों में लगभग 2 प्रतिशत, कई नरसंहारों (Mass Kilkings) में 0 प्रतिशत। हमारे देश में पूरब से दक्षिण तक, तथा अति दक्षिण में हिन्द महासागर में स्थित एक छोटे से देश में, लंबे समय से कुछ सुसंगठित, सशस्त्र गुटों और सुनियोजित भूमिगत संगठनों द्वारा चलाई जा रही हिंसा की चक्की में लाखों निर्दोष लोग और आबादियों की आबादियां पिस्ती, मरती रही हैं। इनमें कोई भी मुस्लिम गुट या संगठन नहीं है। राष्ट्र पिता और दो प्रधानमंत्रियों के हत्यारे, मुसलमान नहीं थे।
● हिंसा में दरिन्दों, राक्षसों से भी आगे...कौन?
हिंसक प्रवृत्ति में जो लोग दरिन्दों, शैतानों और राक्षसों को भी बहुत पीछे छोड़ गए, हज़ारों इन्सानों को (यहां तक कि मासूम बच्चों को भी) ज़िन्दा, (लकड़ी की तरह) जलाकर उनके शरीर कोयले में बदल दिए और इस पर ख़ूब आनन्दित व मग्न विभोर हुए; गर्भवती स्त्रियों के पेट चीर कर बच्चों को निकाला, स्त्री को जलाया, और बच्चे को भाले में गोध कर ऊपर टांगा और ताण्डव नृत्य किया वे मुसलमान नहीं थे (मुसलमान, मांसाहारी होने के बावजूद इन्सानों का मांस नहीं ‘खाते’)
अगर औरतों के साथ ऐसे अत्याचार व अपमान को भी हिंसा के दायरे में लाया जाए जिसकी मिसाल मानवजाति के पूरे विश्व इतिहास में नहीं मिलती तो यह बड़ी अद्भुत, विचित्र अहिंसा है कि (पशु-पक्षियों के प्रति ग़म का तो प्रचार-प्रसार किया जाए, मगरमछ के टस्वे बहाए जाएं, और दूसरी तरफ़) इन्सानों के घरों से औरतों
को खींचकर निकाला जाए, बरसरे आम उनसे बलात् कर्म किया जाए, वस्त्रहीन करके सड़कों पर उनका नग्न परेड कराया जाए, घसीटा जाए, उनके परिजनों और जनता के सामने उनका शील लूटा जाए। नंगे परेड की फिल्म बनाई जाए, और गर्व किया जाए! ऐसी मिसालें ‘हिंसक प्रवृत्ति’ वाले मुसलमानों ने कभी भी क़ायम नहीं की हैं। उनकी इन्सानियत व शराफ़त और उनका विवेक और धर्म उन्हें कभी ऐसा करने ही नहीं देगा। ऐसी ‘गर्वपूर्ण’ मिसालें तो उन पर हिंसा का आरोप लगाने वाले कुछ विशेष ‘अहिंसावादियों’ और ‘देशभक्तों’ ने ही हमारे देश की धरती पर बारम्बार क़ायम की हैं।

अल्लाह की कोन कोन सी निशानियों को झुठलाओगे ,

फिरोन की लाश पर परिक्षण कर के डॉक्टर मोरिस को कुरआन की सत्यता पर विश्वास हुआ डॉ मौरिस बुकाय फ्रांस के सबसे बड़े डाक्टर थे, और उनका धर...